Friday, February 26, 2010

पाक क्रिकेट प्रशिक्षकपद चॅपेल यांनी नाकारले

नवी दिल्ली - इंतिखाब आलम यांच्याऐवजी पाकिस्तानी क्रिकेट मंडळाने राष्ट्रीय संघाचे प्रशिक्षक म्हणून ग्रेग चॅपेल यांना करारबद्ध करण्याचे ठरविले आहे. चॅपेल गुरुजींनी मात्र त्यांचा प्रस्ताव फेटाळला आहे. भविष्यात आंतरराष्ट्रीय पातळीवर कधीही प्रशिक्षण देणार नाही, असेही त्यांनी स्पष्ट केले आहे. त्यांनी सांगितले, की पाक मंडळाचे मुख्य कार्यकारी अधिकारी वसीम बारी यांनी मला दूरध्वनी केला. त्यांनी प्रस्ताव ठेवल्यामुळे मला सन्मानित झाल्यासारखे वाटले; पण मी तो नाकारला. यापुढे आंतरराष्ट्रीय पातळीवर प्रशिक्षक म्हणून सक्रिय होण्याची महत्त्वाकांक्षा मी ठेवलेली नाही.

Tuesday, February 23, 2010

तुकाराम तथा रामदास

तुकाराम तथा रामदास

17वीं शती में तुकाराम तथा रामदास ने एक ही समय धर्मजागृति का व्यापक कार्य किया। ज्ञानदेवादि वारकरी संप्रदाय के अधिकारियों द्वारा निर्मित धर्ममंदिर पर तुकाराम के कार्य ने मानों कलश बैठाया। पोथी पंडितों के अनुभवशून्य वक्तव्यों तथा कर्मकांड के नाम पर दिखलाए जानेवाले ढोंग का भंडाफोड़ करने में तुकाराम की वाणी को अद्भूत ओज प्राप्त हुआ। फिर भी जिस साधक अवस्था से उन्हें जाना पड़ा उसका उनके द्वारा किया हुआ वर्णन काव्य का उत्कृष्ट नमूना है।




रामदास का साहित्य परमार्थ के साथ साथ प्रापंचिक सावधानता का तथा समाजसंघटन का उपांग है। छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु होने के कारण उनके चरित्र की उज्वलता बढ़ गई। फिर भी उनके द्वारा प्रयत्नवाद, लोकसंग्रह, दुष्टों के दलन इत्यादि के संबंध में दिए गए बोध के कारण उन्हें स्वयं ही वैशिष्ट्य प्राप्त हुआ है। दासबोध, मनाचे श्लोक, करुणाष्टक आदि उनके ग्रंथ परमार्थ के विचार से परिपूर्ण हैं। उनके कतिपय अध्यायों के विषय राजनीतिक विचारों से प्रभावित हैं।



तुकाराम रामदास के कालखंड में वामन पंडित, रघुनाथ पंडित, सामराज, नागेश, तथा विट्ठल आदि शिवकालीन आख्यानकर्ता कवियों की एक लंबी पंरपरा हो गई। शब्दचमत्कार, अर्थचमत्कार, नाद माधुर्य, और वृत्तवैचिय इत्यादि इन आख्यानों की विशेषताएँ हैं। वामन नामक पंडित की यथार्थदीपिका गीताटीका उनकी विद्वत्ता के कारण अर्थगंभीर व तत्त्वांगप्रचुर हो गई है। स्वप्न में तुकाराम का उपदेश प्राप्त कर लेनेवाले महीपति प्राचीन मराठी के विख्यात संत चरित्रकार हो गए हैं। कृष्णदयार्णव का "हरिवरदां" तथा श्रीधर कवि के हरिविजय, रामविजय, आदि ग्रंथ सुबोध व रसपूर्ण होने के कारण आबाल वृद्धों को बहुत पंसद आए। इन परमार्थप्रवृत्त पंडितों की परंपरा में मोरोपंत का विशिष्ट स्थान है। इनके रचित आर्या भारत, 108 रामायण तथा सैकड़ों फुटकर काव्यरचनाएँ भाषाप्रभुत्व एवं सुरस वर्णनशैली के कारण विद्वन्मान्य हुई हैं।



पेशवाओं के समय में "शाहिरी" (राजाश्रित) कवियों ने मराठी काव्य की अलग ही रूप रंग प्रदान किया। रामजोशी, प्रभाकर होनाजी बाला इत्यादि कवियों ने संत कवियों के अनुसार परमार्थ पर काव्यरचना न करते हुए समकालीन इतिहास सामग्री ग्रहण कर वीरसपूर्ण काव्य का निर्माण किया। इन कवियों द्वारा रचित "पोवाडा" (पँवाडा, कीर्तिकाव्य) साहित्य महाराष्ट्र के इतिहास का ओजस्वी अंग है। इन्हीं राजकवियों के लावणी साहित्य में स्त्रीपुरुषों के श्रृंगार का भव्य वर्णन है। यद्यपि इनमें से कितनों ने ही वैराग्य पर भी "लावणी" साहित्य का निर्माण किया है, फिर भी इनका वैशिष्ट्य पोवाड़े तथा श्रृंगारिक लावणियों में ही व्यक्त हुआ है।

Monday, February 22, 2010

मराठी साहित्य इतिहास

मराठी साहित्य इतिहास

मराठी साहित्य की प्रारंभिक रचनाएँ यद्यपि 12वीं शती से उपलब्ध हैं तथापि मराठी भाषा की उत्पत्ति इसके लगभग 300 सौ वर्ष पूर्व अवश्य हो चुकी रही होगी। मैसूर प्रदेश के श्रवण बेल गोल नामक स्थान की गोमतेश्वर प्रतिमा के नीचेवाले भाग पर लिखी हुई "श्री चामुंड राजे करवियले" यह मराठी भाषा की सर्वप्रथम ज्ञात पंक्ति है। यह संभवत: शक 905 (ई सन् 983) में उत्कीर्ण की गई होगी। यहाँ से यादवों के काल तक के लगभग 75 शिलालेख आज तक प्राप्त हुए हैं। इनकी भाषा का संपूर्ण या कुछ भाग मराठी है। मराठी भाषा का निर्माण प्रमुखतया, महाराष्ट्री, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं से होने के कारण संस्कृत की अतुलनीय भाषासंपत्ति का उत्तराधिकार भी इसे मुख्य रूप से प्राप्त हुआ है। प्राकृत और अपभ्रंश भाषा को आत्मसात् कर मराठी ने 12वीं शती से अपना अलग अस्तित्व स्थापित करना शुरू किया। इसकी लिपि देवनागरी है।




ऐतिहासिक अनुसंधान करनेवाले अनेक विद्वानों ने यह मान लिया है कि मुकुंदराज मराठी साहित्य के आदि कवि हैं। इनका समय 1128 से 1200 तक माना जाता है। मुकुंदराज के दो ग्रंथ "विवेकसिंधु" और "परमामृत" है जो पूर्ण आध्यात्मिक विषय पर हैं। मुकुंदराज के निवासस्थान के संबंध में विद्वानों का एक मत नहीं है, फिर भी नीड जिले के अंबे जोगाई नामक स्थान पर बनी इनकी समाधि से वे मराठवाडा के निवासी प्रतीत होते हैं। वे नाथपंथीय थे। उनके साहित्य से इस पंथ के संकेत प्राप्त होते हैं। ज्ञानदेव तथा नामदेव



मराठी भाषा के अद्वितीय साहित्यभांडार का निर्माण करनेवाले ज्ञानदेव को ही मराठी का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है। 15 वर्ष की अवस्था में लिखी गई उनकी रचना ज्ञानेश्वरी अत्यंत प्रसिद्ध है। उनके ग्रंथ अमृतानुभव तथा चांगदेव पासष्टी, वेदांत चर्चा से ओतप्रोत हैं। ज्ञानदेव का श्रेष्ठत्व उनके अलौकिक ग्रंथनिर्माण के समान ही उनकी भक्तिपंथ की प्रेरणा में भी विद्यमान है। इस कार्य में उन्हें अपने समकालीन संत नामदेव की अमूल्य सहायता प्राप्त हुई है। ज्ञान और भक्ति के साकार स्वरूप इन दोनों संतों ने महाराष्ट्र के पारमार्थिक जीवन की नई परंपरा को सुदृढ़ स्थान प्राप्त करा दिया। इनके भक्तिप्रधान साहित्य तथा दिव्य जीवन के कारण महाराष्ट्र के सभी वर्गों के समाज में भगवद्भक्तों का पारमार्थिक लोकराज्य स्थापित होने का आभास मिला। चोखा मेला, गोरा कुम्हार, नरहरि सोनार इत्यादि संत इसी परंपरा के हैं।



इसी समय चक्रधर द्वारा स्थापित महानुभावीय ग्रंथकारों की एक अलग श्रृंखला का आरंभ हुआ। चक्रधर के पट्ट शिष्य नागदेवाचार्य ने महानुभाव पंथ को संघटित रूप देकर पंथ की नींव सुदृढ़ की। इन्हीं की प्रेरणा से महेंद्र भट, केशवराज सूरी आदि लोगों ने ग्रंथरचना की। चक्रधर जी के संस्मरण को बतलानेवाला महेंद्र भट का "लीलाचरित्र" इस पंथ का आद्य ग्रंथ है। इसके अतिरिक्त इनके द्वारा लिखित स्मृतिस्थल, केशवराज सूरी का मूर्तिप्रकाश तथा दृष्टांतपाठ, दामोदर पंडित का वत्सहरण, नरेंद्र का रुक्मिणी स्वयंवर, भास्कर भट का शिशुपालवध और उद्धवगीता आदि महानुभाव पंथ के प्रमुख ग्रंथ हैं। शिशुपालवध तथा रुक्मिणी स्वयंवर ग्रंथ काव्य की दृष्टि से अत्यंत सरस एवं महत्वपूर्ण हैं।



अब ज्ञानदेव और नामदेव के समय की राज्यस्थिति बदल चुकी थी। यादवों का राज्य नष्ट होकर उसके स्थान पर मुसलमानों का राज्य स्थापित हो जाने के कारण निराशा की गहरी छाया छाई हुई थी। उसे दूरकर परमार्थ मार्ग को फिर से प्रकाशमान बनाने का कार्य मराठवाडा के अंतर्गत पैठण क्षेत्र के निवासी संत एकनाथ ने किया। इनके ग्रंथ विशद तथा साहित्यिक गुणों से संपन्न है। इनमें वेदांत ग्रंथ, आख्यान, कविता, स्फुट प्रकरण, लोकगीत, रामायणकथा इत्यादि नाना प्रकार के साहित्य का समावेश है। एकनाथी भागवत, भावार्थ रामायण, रुक्मिणी स्वयंवर, भारुड आदि ग्रंथ मराठी में सर्वमान्य हैं। एकनाथ के ही समय में प्रचुर मात्रा में साहित्यनिर्माण करनेवाले दासोपंत नामक कवि हुए। एकनाथ के पौत्र (नाती) मुक्तेश्वर के "कलाविलास" को मराठी भाषा में उच्च स्थान प्राप्त है। इनके लिखे महाभारत के पाँचों पर्व मानो नवरसों से सुसज्जित मंदाकिनी ही हैं।





Friday, February 19, 2010

तुमचा पासवर्ड तुमच्या पाकिटात ?


दिवसभरात आपण संगणकावर किती काम करतो ? किती संकेतस्थळे रोजच्यारोज उघडतो ? त्यातल्या किती संकेतस्थळांवर रोज लॉग इन करतो ? त्यातल्या प्रत्येक संकेतस्थळाचे युजर नेम आणि पासवर्ड लक्षात कसे ठेवतो ? गुगल, याहू, एमेसेन सारखी संकेतस्थळे त्यांच्या स्वत:च्या विविध सेवा वापरण्याकरता एकाच पासवर्डवर काम भागवतात. पण इतर संकेतस्थळांचे काय ? आपण अनेक बॅंकांचे खातेदार असतो…आजकाल नेट बॅंकिंगचा वापर करून लीलया इकडचे पैसे तिकडे वळवतो. अनेकदा ऑनलाईन गुंतवणूक करतो. ह्या सगळ्या गोष्टीत पैसा गुंतलेला असल्याने आपला पासवर्ड सुरक्षित कसा ठेवणार आणि त्याहूनही महत्वाचं म्हणजे तो लक्षात कसा ठेवणार…..तर बहुतेकजण एकच पासवर्ड सगळीकडे वापरतात. युजरनेम आपण एकच वापरून चालू शकेलही पण पासवर्डही सगळीकडे एकच ठेवला आणि दुर्दैवाने तो चोरीला गेला तर काय ?यावर उपाय म्हणून मध्यंतरी महाजालावर एक युक्ती माझ्या वाचनात आली होती. खाली एक चित्र जोडले आहे. १४ x 6 आकाराचा एक आयत आहे. त्यात पहिल्या आडव्या ओळीत इंग्रजी A ते Z अशी एका रकान्यात प्रत्येकी दोन अक्षरे आहेत. पहिल्या उभ्या स्तंभात १ ते ५ असे अंक आहेत. दुसर्‍या ओळीपासून आणि स्तंभापासून त्यात काही संदर्भहीन अक्षरे आणि/किंवा अंक आहेत. आता याचा वापर करून आपण आपल्याला हव्या त्या संकेतस्थळाचा पासवर्ड कसा तयार करू शकतो बरं ?




उदा. मला माझ्या गुगल खात्याचा पासवर्ड तयार करायचा आहे. तर गुगल म्हणजे google….




g x 1 ओळ = 2w

o x 2 ओळ = 49

o x 3 ओळ = 87x

g x 4 ओळ = px56

l x 5 ओळ = uh



म्हणजे 2w4987xpx56uh इतका पासवर्ड पुरेसा आहे नाही का यात मध्ये मध्ये तुम्ही तुमच्या इच्छेने इतर अक्षरे किंवा अंक घालू शकता ( उदा. Pune……P2w4U987xpxN56uhE पण जर का ती विसरलात तर मात्र पंचाईत होईल कारण ती या यादीत नसतील. आजकाल सगळ्याच न्याहाळकात पासवर्ड सेव्ह करायची सोय असते. एकदा हा पासवर्ड तयार करून, न्याहाळकाला लक्षात ठेवायची आज्ञा दिली की काही प्रश्नच नाही. तुमच्या संगणकाशिवाय इतर कोणत्या संगणकावर असलात तरी हा कागद खिशात बाळगून तुम्ही केव्हाही तुमची खाती तपासू शकता. नुसता हा कागद जरी कोणाच्या हाती लागला तरी काही बिघडत नाही. तुमची खाती कोणती आणि त्याचे लॉग इन काय आहे हे इतरांना माहित असायचे कारण नाही.



तुम्ही ही खालचीच आकृती प्रमाण मानायला हवी असेही काही नाही. तुम्ही साध्या एक्सेल शीट मध्ये तुम्हाला हवी ती अक्षरे किंवा अंक घालून ह्या आकृतीचे प्रिंट काढून जवळ बाळगू शकता. संगणकावर सेव्ह करून ठेऊ शकता. कागद हरवला……खराब झाला….तरी तुमच्याजवळ तुम्ही केलेल्या फाईलची एक प्रत असेलच. या सुविधेचा वापर करा आणि कशी वाटली ते कळवायला विसरू नका मात्र.

Thursday, February 18, 2010

आधुनिक काल

आधुनिक काल

1874-1929


हरिनारायण आपटे ने ऐतिहासिक उपन्यासों द्वारा भूतकालीन घटनाओं को बड़े ही सुंदर ढंग से चित्रित किया, तथा सामाजिक उपन्यासों द्वारा स्त्रियों के दु:खी जीवन का हृदयद्रावक चित्र भी खींचा। श्री अण्णा साहेब किर्लोस्कर ने 1880 में शाकुंतल नाटक लिखकर आधुनिक मराठी रंगभूमि की नींव डाली। इन्हीं की परंपरा में गोदृ ददृ देवल ने सबसे पहले प्रभावोत्पादक नाटक लिखकर नाट्य साहित्य को नई दिशा प्रदान की। 1885 से केशवसुत नामक कवि ने काव्यक्षेत्र में नए युग की स्थापना की। ऐतिहासिक सुख में विश्वास, अकृत्रिम प्रेम तथा आत्मनिष्ठा इत्यादि गुण इन कविताओं का वैशिष्ट्य रहा। इनके बाद तिलक, बीदृ गोविदाग्रज, बालकवि चंद्रशेखर, तांबे इत्यादि कवियों ने मराठी कविताओं का सौंदर्य की सामथ्र्य और अधिक बढ़ाया। सावरकर तथा गोविंद ने राष्ट्रीय भावनाओं का उद्दीपन करनेवाली कविताएँ लिखीं। इतिहासाचार्य राजवाडे ने मराठी इतिहास के संशोधन की परंपरा का निर्माण किया। खरेशास्त्री, साने, पारनीस आदि इतिहासज्ञों ने इतिहालेखन के साधनों की महत्वपूर्ण खोज करने का प्रयत्न किया। लोकमान्य बाल गंगा जी तिलक की ओजस्वी विचारधारा के आधार पर खाडिलकर ने उत्कृष्ट पौराणिक एवं ऐतिहासिक नाटकों का निर्माण किया। इसी समय रामगणेश गडकरी ने अपनी लोकोत्तर प्रतिभा से करुण एवं हास्य रस का उत्तम चित्रण किया। श्रीकृष्ण कोल्हाटकर ने अपने हास्यपूर्ण लेखों द्वारा सामाजिक आचार विचार में दिखलाई पड़नेवाली त्रुटियों को सर्वमान्य जनता के सामने ला रखा। लोकमान्य तिलक, आगरकर, परांजपे, नरसिंह, चिंतामणि केलकर आदि प्रसिद्ध लेखक इसी समय देश में विचारजाग्रति का महान् कार्य कर रहे थे। लोकरंजन की अपेक्षा विविध विषयों के ज्ञानभंडार की पूर्ति को अधिक महत्वपूर्ण मानक साहित्यनिर्माण का कार्य किया गया।



1920-1945

इसके बाद की कालावधि में लोकरंजन को अधिक महत्व प्राप्त हुआ। प्रमुख आशय के साथ साथ उद्देश्य की अभिव्यक्ति का भी विचार होने लगा। फिर भी यह नहीं भुलाया गया कि साहित्य ही समाज के मन पर विशिष्ट संस्कार डालनेवाला प्रभावी साधन है। डादृ केतकर, वादृ मदृ जोशी, विदृ सदृ खांडेकर ने कलाप्रदर्शन की अपेक्षा ध्येयवादी जीवनदर्शन को ही अपने उपन्यासों में महत्व का स्थान दिया। श्री मांडखोलकर ने समकालीन राजकीय घटनाओं के आधार पर अनेक उपन्यासों का सृजन किया। श्री विभावरी शिरुकर जी ने अपने कथासाहित्य में संपन्न समाज की महिलाओं के मन की सूक्ष्म विचारतरंगों को बड़ी सफलता से चित्रित किया।



नादृ सीदृ फड़के ने अनेक प्रणयकथाएँ सुदंर शैली में लिखीं जो यथेष्ट लोकप्रिय हुईं। रविकिरण मंडल के कवियों ने, विशेषत: माध्व ज्यूलियन और यशवंत ने वैयक्तिक दु:खों का वर्णन करनेवाले काव्यों की रचना की। इसके बाद के कालखंड में अनिल, बोरकर, कुसुमाग्रज, आदि कवि सामने आए। प्रल्हाद केशव अत्रे ने हास्य एवं समस्याप्रधान नाटकों का निर्माण किया। वरेरकर ने समय समय पर दृष्टिगोचर होनेवाली समस्याओं को प्रधानता देनेवाले नाटकों को सृजन कर बहुत बड़ा कार्य किया। इसी समय व्यक्तिगत चरित्र के आधार पर लिखे गए निबंध भी लघुकथाओं के रूप में सामने आए। श्री मदृ माटे द्वारा लिखित कथाओं में अस्पृश्य समाज के सुख दु:खों की करुण कहानी देखने को मिली। ठीक इसी समय यदृ गोदृ जोशी द्वारा मध्यम वर्गीय समाज के सुख दु:खों को कथाओं का रूप देकर जनता के सम्मुख रखा गया। विदृ दादृ सावरकर, मदृ माटे, केदृ क्षीरसागर, पुदृ गदृ सहस्रबुद्धे, दत्तोवमान पोतदार, आदि विद्वानों ने बहुमूल्य निबंधो द्वारा साहित्यभांडार की अभिवृद्धि की। ददृ केदृ केलकर, रादृ श्रीदृ जोग तथा केदृ नादृ वाटवे ने पौर्वात्य एवं पाश्चिमात्य शास्त्रीय तथा साहित्यकीय विचारों का सांगोपांग अध्ययन किया।



1945-1965

इस कालखंड का आरंभ ही दूसरे महायुद्ध के समय निर्मित साहित्य के आधार पर हुआ। इस काल के वाङ्मय से इसके पूर्व के काव्य और कथाओं के प्रमुख आशय को एवं आविष्कारादि संकेतों को जबरदस्त धक्का लगा जिसके फलस्वरूप साहित्य का मूल्य ध्वस्त होता सा प्रतीत होने लगा। मानव जीवन की असफलता, तुच्छता, घृण्यता तथा परस्पर के अकल्पनीय संबंधों का असुंदर जी की कविताओं ने रसिकों की काव्यदृष्टि में ही परिवर्तन कर दिया। गाडगील, भावे, गोखले आदि मनीषियों द्वारा लिखित साहित्य में मनोमय व्यापार, उग्र वासना का प्रक्षोभ, एवं गूढ़ विचारतरंग इत्यादि की जो विशिष्टता अभिव्यंजित की गई, उसके कारण वाङ्मय का स्वरूप ही बदल गया। विदृ दादृ करंदीकर तथा मुक्तिबोध काव्यों में मानववाद की अभिव्यक्ति हुई। ग्रामीण जीवन का यथार्थ दर्शन व्यंकटेश माडगुलकर ने कराया, तो दूसरी ओर माधव शास्त्री जोशी ने मध्यवर्गीय जीवन का वास्तविक चित्र जनता के सम्मुख रखा। संपन्न वर्ग के स्त्रीपुरुषों के सुख एवं दु:खों का दिग्दर्शन रांगणेकर, कालेलकर, बाल कोल्हाटकर इत्यादि द्वारा लिखे नाटकों में दिखाई पड़ता है, जो विद्याघर गोखले द्वारा लिखित नाटक में प्राचीन संगीत नाट्यकला पुनरुज्जीवित हो उठी है। पेंडसे, दांडेकर, माडगूलकर आदि के उपन्यासों में प्रादेशिक हलचल के साथ सूक्ष्म भावना दर्शन को भी महत्व दिया गया है। श्री रणजीत देसाई एवं इनामदार ने ऐतिहासिक उपन्यासों का पुनरुद्धार किया। इसी प्रकार तेंदुलकर, साठे, खानोलकर इत्यादि ने नए ढंग के नाटकों का प्रणयन किया। कानेरकर जी द्वारा लिखित प्रयोगी नाटक इसी कालखंड में लिखे गए। मर्ढेकर, वादृ लदृ कुलकर्णी, श्रीदृ केदृ क्षीरसागर, रादृ शंदृ वालिंबे, दिदृ केदृ बेडेकर आदि विद्वानों ने साहित्य के मूल सिद्धांतों की चर्चा करनेवाले अत्यंत मूल्यवान् एवं आलोचनात्मक ग्रंथ प्रकाशित किए। नेने, मिराशी, कोलते, तुलपुल इत्यादि विद्वानों का संशोधनात्मक वाङ्मय भी इसी समय निर्मित हुआ। पुदृ लदृ देशपांडे के ठोस विनोदी साहित्य ने रसिकों के मन में अचल स्थान प्राप्त कर लिया।



इस प्रकार सन् 1874 से निर्मित आधुनिक मराठी वाङ्मय रूपधारी सरस्वती की धारा काव्य, कथा, नाटक, उपन्यास, चरित्र, एवं इतिहास संशोधनादि प्रवाहों से दिन प्रति समृद्ध हो रही है।

Tuesday, February 16, 2010

बखर साहित्य

बखर साहित्य

प्राचीन मराठी साहित्य प्रधानत: पद्यमय होने के कारण उसमें गद्य का भाग बहुत छोटा होना स्वाभाविक है। इसमें बखर साहित्य ऐतिहासिक दृष्टि से पूर्णतया साधार न होने पर भी उपेक्षणीय नहीं। कृष्णाजी शामराव की लिखी भाऊ साहेब की बखर, कृष्णाजी अनंत सभासद लिखित शिव छत्रपति की बखर, सोवनी द्वारा लिखी पेशवाओं की बखर इत्यादि बखरें प्राचीन मराठी गद्य के उत्कृष्ट नमूने हैं। इसी प्रकार ऐतिहासिक कालखंड के राजपुरुषों के जो हजारों पत्र प्रकाशित हुए हैं, उनमें भी अनेक साहित्यिक गुणों का मनोरम दर्शन होता है।




अंग्रेजों के पूर्वकालीन साहित्य की सीमा यहाँ समाप्त होती है और एक नए युग का प्रारंभ होता है। इस समय के साहित्य की प्रेरणा प्राय: धर्मजीवन के लिये ही थी, अत: इस दीर्घ कालखंड में निर्मित साहित्य अत्यंत विशद होने पर भी अधिकांश एक ही सा है। काव्यों के विषय, आध्यात्मिक विचार, पौराणिक कथाएँ तथा ऐसी ही अन्य बातें थीं जो थोड़े से हेरफेर के साथ पुन: पुन: आई सी मालूम होती हैं। समय के हेरफेर से तथा व्यक्ति के बदलने से वर्णन की पद्धति बदली परंतु साहित्य में एक ही परमार्थ प्रवाह बराबर बहता रहा।

Sunday, February 14, 2010

नए युग का आरंभ

नए युग का आरंभ

अंग्रेजों के शासन काल से ही महाराष्ट्र के नवयुवकों में अपनी निश्चित सीमा से कुछ दूर जाने के प्रयत्न चल रहे थे। मुद्रणकला का प्रचार होने से साहित्य पढ़नेवाले वर्ग की सर्वत्र वृद्धि होने लगी, अत: उनकी संतुष्टि के लिये साहित्यिक भी नवीन साहित्यक्षेत्रों में प्रवेश करने लगे। 1857 में बाबा पदमजी ने "यमुनापर्यटन" नामक प्रथम उपन्यास लिखकर इस नवीन साहित्य प्रकार का शुभारंभ किया। इसी तरह विदृ जदृ कीर्तने के 1861 में लिखे "थोरले माधवराव पेशवे" ऐतिहासिक नाटक के कारण नाट्य साहित्य में नए युग का सूत्रपात हुआ। क्रमश: निबंध, चरित्र, व्याकरण, कोश, धर्मनीति तत्त्वज्ञान, प्रवासवर्णन, इत्यादि अनेक विभागों में साहित्यनिर्माण होने लगा। अंग्रेजी तथा संस्कृत साहित्य के ललित और शास्त्रीय ग्रंथों के मराठी अनुवाद बड़ी संख्या में होने लगे। कृष्ण शास्त्री चिपलूणकर, परशुराम तात्या गोडबोले, लोकहितवादी देशमुख, दादोबा पांडुरंग आदि बहुश्रुत व्यक्तियों ने अनेक विषयों पर ग्रंथरचना कर मराठी वाङ्मय को विकास के क्षेत्र में सभी ओर से नया मोड़ दिया। इस समय के विविध ज्ञानविस्तार, ज्ञानप्रकाश, ज्ञानसंग्रह, दिग्दर्शन आदि नियमित पात्रों ने भी ज्ञान का पौसरा चलाकर मानों नई पीढ़ियों की साहित्यिक पिपासा शांत करने में हाथ बँटाया।




1874 में विष्णु शास्त्री चिपलूणकर द्वारा शुरू की गई निबंधमाला के कारण मराठी साहित्य में ही नहीं अपितु महाराष्ट्र की विचारपरंपरा में भी क्रांति होकर नए युग की प्रतिष्ठापना हुई। नव सुशिक्षित वर्ग में अपना देश, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति आदि के संबंध में स्वाभिमान जाग्रत हुआ। अंग्रेजी साहित्य के वैशिष्ट्य को आत्मसात् करते हुए वह ऐसे साहित्य के लिये प्रवृत्त हुआ जिससे भारतीय संस्कृति के भविष्य का पोषण होता। झ्र्श. ग. तुड़पुड़ेट



 

Wednesday, February 3, 2010

मराठी में साहित्य अकादमी पुरस्कार


मराठी में साहित्य अकादमी पुरस्कार
मराठी साहित्य में विशिष्ट योगदान के लिए हर साल मराठी साहित्यकारों को साहित्य अकादमी की ओर से साहित्य अकादमी पुरस्कार दिए जाते हैं।




पुरस्कार विजेते साहित्यकार और उनके किताबों की सूची इस प्रकार है-



१९५५ – तर्कतीर्थ लक्ष्मण शास्त्री जोशी – 'वैदिक संस्कृतिचा विकास'

१९५६ – बी.एस. मर्ढेकर – 'सौंदर्य आणि साहित्य'

१९५७ – कोई पुरस्कार नहीं

१९५८ – चिंतामणराव कोल्हटकर – 'बहूरूपी'

१९५९ – जी. टी. देशपांडे – 'भारतीय साहित्यशास्त्र'

१९६० – विष्णु सखाराम खांडेकर – 'ययाति'

१९६१ – डी.एन. गोखले – 'डॉ. केतकर'

१९६२ – पी.वाय. देशपांडे – 'अनामिकेची चिंतनिका'

१९६३ – एस.एन. पेंडसे – 'रथचक्र'

१९६४ – रणजित देसाई – 'स्वामी'

१९६५ – पु.ल. देशपांडे – 'व्यक्ति आणि वल्ली'

१९६६ – टी.एस. शेजवळकर – 'श्री शिव छत्रपति'

१९६७ – एन.जी. केळकर – 'भाषाः इतिहास आणि भूगोल'

१९६८ – इरावती कर्वे – 'युगांत'

१९६९ – एस.एन. बनहट्टी – 'नाट्याचार्य देवल'

१९७० – एन.आर. पाठक – 'आदर्श भारत सेवक'

१९७१ – दुर्गा भागवत – 'पैस'

१९७२ – गोदावरी परूळेकर – 'जेंव्हा माणुस जागा होतो'

१९७३ – जी.ए. कुळकर्णी – 'काजळमाया'

१९७४ – विष्णु वामन शिरवाडकर – 'नटसम्राट'

१९७५ – आर.बी. पाटणकर – 'सौंदर्य मिमांसा'

१९७६ – जी.एन. दांडेकर – 'स्मरणगाथा'

१९७७ – ए.आर. देशपांडे 'अनिल' – 'दशपदी'

१९७८ – सी.टी. खानोलकर 'आरती प्रभु' – 'नक्षत्रांचे देणे'

१९७९ – शरदचंद्र मुक्तिबोध – 'सृष्टि, सौंदर्य आणि साहित्यमुल्य'

१९८० – मंगेश पाडगांवकर – 'सलाम'

१९८१ – लक्ष्मण माने – 'उपरा'

१९८२ – प्रभाकर पाध्ये – 'सौंदर्यानुभव'

१९८३ – व्यंकटेश माडगुळकर – 'सत्तांतर'

१९८४ – इंदिरा संत – 'गर्भरेशमी'

१९८५ – विश्राम बेडेकर – 'एक झाड आणि दोन पक्षी'

१९८६ – एन.जी. देशपांडे – 'खूण गाठी'

१९८७ – आर.सी. ढेरे – 'श्री विठ्ठलः एक महासमन्वय'

१९८८ – लक्ष्मण गायकवाड – 'उचल्या'

१९८९ – प्रभाकर उर्ध्वरेशे – 'हरवलेले दिवस'

१९९० – आनंद यादव – 'झोंबी'

१९९१ – भालचंद्र नेमाडे – 'टीका स्वयंवर'

१९९२ – विश्वास पाटिल – 'झाडा झडती'

१९९३ – विजया राजाध्यक्ष – 'मर्ढेकरांची कविता'

१९९४ – दिलीप चित्रे – 'एकूण कविता – १'

१९९५ – नामदेव कांबळे – 'राघव वेल'

१९९६ – गंगाधर गाडगीळ – 'एका मुंगीचे महाभारत'

१९९७ – एम.वी.धोंड – 'ज्ञानेश्वरीतील लौकिक सृष्टि'

१९९८ – सदानंद मोरे – 'तुकाराम दर्शन'

१९९९ – रंगनाथ पाठारे – 'ताम्रपट'

२००० – एन.डी. मनोहर – 'पानझड'

२००१ – राजन गावस – 'टणकट'

२००२ – महेश एलकुंचवार – 'युगांत'

२००३ – टी.वी. सरदेशमुख – 'डांगोरा एका नगरीचा'

Tuesday, February 2, 2010

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित मराठी साहित्यकार

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित मराठी साहित्यकार



विष्णु सखाराम खांडेकर




विष्णु वामन शिरवाडकर (कवि कुसुमाग्रज)



विंदा करंदीकर



Monday, February 1, 2010

मराठी कवि और लेखक

मराठी कवि और लेखक

संदीप खरे


संत एकनाथ

संत ज्ञानेश्वर

संत तुकाराम

जी. ए. कुलकर्णी : काजळमाया, हिरवे रावे, निळा सावळा, पारवा, रक्तचंदन,(कथा संग्रह)

पु. ल. देशपांडे : व्यक्ति आणि वल्लि, पुर्वरंग, अपुर्वाई, बटाट्याची चाळ, असा मी असामी

प्र. के. अत्रे

वि. वा. शिरवाडकर

ना. सी. फडके

रणजित देसाई : स्वामी

ग. दि. माडगूळकर

साने गुरुजी

भा.रा. भागवत : फास्टर फेणे

जयन्त नारळीकर

व.पु. काळे

ना. स. इनामदार

राम गणेश गडकरी

विजय तेंडुलकर

चिं. त्र्यं. खानोलकर

विश्वास पाटील

शांता शेळके

दुर्गा भागवत : व्यासपर्व

डॉ. लक्ष्मण देशपांडे : वर्हाड निघालय लंडनला

अनिल अवचट

त्र्यंबक बापुजी ठोंबरे

इंदिरा संत

बहिणाबाई चौधरी

मंगेश पाडगावकर

वि. स. खांडेकर