Monday, February 22, 2010

मराठी साहित्य इतिहास

मराठी साहित्य इतिहास

मराठी साहित्य की प्रारंभिक रचनाएँ यद्यपि 12वीं शती से उपलब्ध हैं तथापि मराठी भाषा की उत्पत्ति इसके लगभग 300 सौ वर्ष पूर्व अवश्य हो चुकी रही होगी। मैसूर प्रदेश के श्रवण बेल गोल नामक स्थान की गोमतेश्वर प्रतिमा के नीचेवाले भाग पर लिखी हुई "श्री चामुंड राजे करवियले" यह मराठी भाषा की सर्वप्रथम ज्ञात पंक्ति है। यह संभवत: शक 905 (ई सन् 983) में उत्कीर्ण की गई होगी। यहाँ से यादवों के काल तक के लगभग 75 शिलालेख आज तक प्राप्त हुए हैं। इनकी भाषा का संपूर्ण या कुछ भाग मराठी है। मराठी भाषा का निर्माण प्रमुखतया, महाराष्ट्री, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं से होने के कारण संस्कृत की अतुलनीय भाषासंपत्ति का उत्तराधिकार भी इसे मुख्य रूप से प्राप्त हुआ है। प्राकृत और अपभ्रंश भाषा को आत्मसात् कर मराठी ने 12वीं शती से अपना अलग अस्तित्व स्थापित करना शुरू किया। इसकी लिपि देवनागरी है।




ऐतिहासिक अनुसंधान करनेवाले अनेक विद्वानों ने यह मान लिया है कि मुकुंदराज मराठी साहित्य के आदि कवि हैं। इनका समय 1128 से 1200 तक माना जाता है। मुकुंदराज के दो ग्रंथ "विवेकसिंधु" और "परमामृत" है जो पूर्ण आध्यात्मिक विषय पर हैं। मुकुंदराज के निवासस्थान के संबंध में विद्वानों का एक मत नहीं है, फिर भी नीड जिले के अंबे जोगाई नामक स्थान पर बनी इनकी समाधि से वे मराठवाडा के निवासी प्रतीत होते हैं। वे नाथपंथीय थे। उनके साहित्य से इस पंथ के संकेत प्राप्त होते हैं। ज्ञानदेव तथा नामदेव



मराठी भाषा के अद्वितीय साहित्यभांडार का निर्माण करनेवाले ज्ञानदेव को ही मराठी का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है। 15 वर्ष की अवस्था में लिखी गई उनकी रचना ज्ञानेश्वरी अत्यंत प्रसिद्ध है। उनके ग्रंथ अमृतानुभव तथा चांगदेव पासष्टी, वेदांत चर्चा से ओतप्रोत हैं। ज्ञानदेव का श्रेष्ठत्व उनके अलौकिक ग्रंथनिर्माण के समान ही उनकी भक्तिपंथ की प्रेरणा में भी विद्यमान है। इस कार्य में उन्हें अपने समकालीन संत नामदेव की अमूल्य सहायता प्राप्त हुई है। ज्ञान और भक्ति के साकार स्वरूप इन दोनों संतों ने महाराष्ट्र के पारमार्थिक जीवन की नई परंपरा को सुदृढ़ स्थान प्राप्त करा दिया। इनके भक्तिप्रधान साहित्य तथा दिव्य जीवन के कारण महाराष्ट्र के सभी वर्गों के समाज में भगवद्भक्तों का पारमार्थिक लोकराज्य स्थापित होने का आभास मिला। चोखा मेला, गोरा कुम्हार, नरहरि सोनार इत्यादि संत इसी परंपरा के हैं।



इसी समय चक्रधर द्वारा स्थापित महानुभावीय ग्रंथकारों की एक अलग श्रृंखला का आरंभ हुआ। चक्रधर के पट्ट शिष्य नागदेवाचार्य ने महानुभाव पंथ को संघटित रूप देकर पंथ की नींव सुदृढ़ की। इन्हीं की प्रेरणा से महेंद्र भट, केशवराज सूरी आदि लोगों ने ग्रंथरचना की। चक्रधर जी के संस्मरण को बतलानेवाला महेंद्र भट का "लीलाचरित्र" इस पंथ का आद्य ग्रंथ है। इसके अतिरिक्त इनके द्वारा लिखित स्मृतिस्थल, केशवराज सूरी का मूर्तिप्रकाश तथा दृष्टांतपाठ, दामोदर पंडित का वत्सहरण, नरेंद्र का रुक्मिणी स्वयंवर, भास्कर भट का शिशुपालवध और उद्धवगीता आदि महानुभाव पंथ के प्रमुख ग्रंथ हैं। शिशुपालवध तथा रुक्मिणी स्वयंवर ग्रंथ काव्य की दृष्टि से अत्यंत सरस एवं महत्वपूर्ण हैं।



अब ज्ञानदेव और नामदेव के समय की राज्यस्थिति बदल चुकी थी। यादवों का राज्य नष्ट होकर उसके स्थान पर मुसलमानों का राज्य स्थापित हो जाने के कारण निराशा की गहरी छाया छाई हुई थी। उसे दूरकर परमार्थ मार्ग को फिर से प्रकाशमान बनाने का कार्य मराठवाडा के अंतर्गत पैठण क्षेत्र के निवासी संत एकनाथ ने किया। इनके ग्रंथ विशद तथा साहित्यिक गुणों से संपन्न है। इनमें वेदांत ग्रंथ, आख्यान, कविता, स्फुट प्रकरण, लोकगीत, रामायणकथा इत्यादि नाना प्रकार के साहित्य का समावेश है। एकनाथी भागवत, भावार्थ रामायण, रुक्मिणी स्वयंवर, भारुड आदि ग्रंथ मराठी में सर्वमान्य हैं। एकनाथ के ही समय में प्रचुर मात्रा में साहित्यनिर्माण करनेवाले दासोपंत नामक कवि हुए। एकनाथ के पौत्र (नाती) मुक्तेश्वर के "कलाविलास" को मराठी भाषा में उच्च स्थान प्राप्त है। इनके लिखे महाभारत के पाँचों पर्व मानो नवरसों से सुसज्जित मंदाकिनी ही हैं।





No comments:

Post a Comment